तब तक बहू सब से अच्छी, सब से निराली।
जिस दिन बहू अपने घर जाने की बात बोल दे
तब से बहू अपनी सबसे बुरी, सबसे गंदी।
न जाने क्यों शादी के बाद एक बेटी को
सिर्फ बहू बनकर ही रहना पड़ता है।
बेटी बनने की चाह भी बुरी है, बात भी गलत है।
ससुराल कभी भी उसका घर नहीं बन सकता
क्योंकि वहाँ उसको वो आज़ादी नहीं जो मायके में होती थी,
वहाँ वो सुकून नहीं जो पापा के साथ बात करके मिलता था,
वहाँ वो आराम नहीं जो माँ के घर में मिलता था।
बहू इंसान नहीं मानो मशीन हो जैसे
पूरा दिन बस काम करती रहे, जी तो मेहनत करें
मगर प्रतिफल के रूप में सिर्फ ताने सुनने को मिले।
ससुराल कभी उसका घर नहीं बन सकता
क्योंकि घर के नाम पर बस क़ैद ही मिलता है उसको।
पति के परिवार को पत्नी अपनाए मगर पति
सिर्फ अपने माँ बाप को अपना संसार माने।
अजीब से रीत है इस अजीब से दुनिया की
बस बहू संवार ले, तौर तरीक़े अपनाए
और दामाद अपने मन के अनुसार चले।
भगवान भी परीक्षा लेता है उनकी
जो उसको सबसे ज़्यादा मानते है
और भरोसा करते है उसके ऊपर।
बहू बेटी का फ़र्क कभी मिटेगा नहीं
और न ही मायके और ससुराल का अंतर।
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